मध्य एवं उत्तर एशिया
हूणदेश (मध्य एशिया) :
भारत से मध्य एशिया जेन का मार्ग अफ़ग़ानिस्तान होकर जाता था। आज से १००० वर्ष पूर्व अफ़ग़ानिस्तान भारत का ही भाग था जो गांधार नाम से जाना जाता था। तक्षशिला विद्यापीठ गांधार में ही था। ग्रीस, रोम, मिस्र, हूण, चीन, आदि सभी देश इस विद्यापीठ से सम्बंधित थे। ३००० वर्ष पूर्व यह संसार का एक मात्र अद्यतन विद्यापीठ था, जहाँ प्रवेश पाना बहुत कठिन था। हजारों विद्वान प्राधयापक यहाँ संस्कृत, पाली, अर्ध मागधी, आदि माध्यमों से विद्यादान करते थे। तक्षशिला के स्नातकों को पृथ्वीभर के सभी देशों कि राजसभाओं में सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त थी।
भारतियों का मध्य एशिया और चीन से पूर्व काल में जिस भूमार्ग से संपर्क होता था उसको रेशम मार्ग कहते थे। इस मार्ग में स्थित नगरों में भारतीय राजाओं कि राजधानियां थी। खोतान के राजा का नाम विजितकीर्ति था। काशनगर के राज्य का नाम शैलेन्द्र देश था। काशनगर के उत्तर में कूचा के राजा थे - हरपुष्प, सुवर्णपुष्प, हरदेव आदि। कूचा के उत्तर में अग्निदेश था जहाँ इंद्रार्जुन राज्य करते थे। ये चारों नगर आज चीन के सिकियांग प्रदेश में हैं। यहाँ पर भारतियों कि परिपाटी के अनुसार शैव, वैष्णव, बौद्ध, आदि भारतीय दर्शनो के लोग मिलजुल के रहा करते थे। आज वहाँ के बौद्ध विहार शिथिलावस्था में है, जहाँ बुद्ध, शिव, विष्णु, सरस्वती, आदि मूर्तियां मिली है।
भारत से मध्य एशिया जेन का मार्ग अफ़ग़ानिस्तान होकर जाता था। आज से १००० वर्ष पूर्व अफ़ग़ानिस्तान भारत का ही भाग था जो गांधार नाम से जाना जाता था। तक्षशिला विद्यापीठ गांधार में ही था। ग्रीस, रोम, मिस्र, हूण, चीन, आदि सभी देश इस विद्यापीठ से सम्बंधित थे। ३००० वर्ष पूर्व यह संसार का एक मात्र अद्यतन विद्यापीठ था, जहाँ प्रवेश पाना बहुत कठिन था। हजारों विद्वान प्राधयापक यहाँ संस्कृत, पाली, अर्ध मागधी, आदि माध्यमों से विद्यादान करते थे। तक्षशिला के स्नातकों को पृथ्वीभर के सभी देशों कि राजसभाओं में सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त थी।
भारतियों का मध्य एशिया और चीन से पूर्व काल में जिस भूमार्ग से संपर्क होता था उसको रेशम मार्ग कहते थे। इस मार्ग में स्थित नगरों में भारतीय राजाओं कि राजधानियां थी। खोतान के राजा का नाम विजितकीर्ति था। काशनगर के राज्य का नाम शैलेन्द्र देश था। काशनगर के उत्तर में कूचा के राजा थे - हरपुष्प, सुवर्णपुष्प, हरदेव आदि। कूचा के उत्तर में अग्निदेश था जहाँ इंद्रार्जुन राज्य करते थे। ये चारों नगर आज चीन के सिकियांग प्रदेश में हैं। यहाँ पर भारतियों कि परिपाटी के अनुसार शैव, वैष्णव, बौद्ध, आदि भारतीय दर्शनो के लोग मिलजुल के रहा करते थे। आज वहाँ के बौद्ध विहार शिथिलावस्था में है, जहाँ बुद्ध, शिव, विष्णु, सरस्वती, आदि मूर्तियां मिली है।
कश्यप :
मध्य एशिया का कैस्पियन समुद्र आज दक्षिण रूस में है। इस समुद्र के पूर्व तट पर २५०० वर्ष पूर्व कश्यप सभ्यता अत्यंत उन्नत स्थिति में थी। वहाँ उत्खनन करने पर रूस वालों को एक सुसंस्कृत लोगों कि अत्यंत शास्त्र-शुद्ध रचना वाली हड़प्पा संस्कृति जैसी प्राचीन नगरी प्राप्त हुई है। उत्खनन करने वालों का मानना है कि ये नगर हड़प्पा संस्कृति के हैं।
मध्य एशिया का कैस्पियन समुद्र आज दक्षिण रूस में है। इस समुद्र के पूर्व तट पर २५०० वर्ष पूर्व कश्यप सभ्यता अत्यंत उन्नत स्थिति में थी। वहाँ उत्खनन करने पर रूस वालों को एक सुसंस्कृत लोगों कि अत्यंत शास्त्र-शुद्ध रचना वाली हड़प्पा संस्कृति जैसी प्राचीन नगरी प्राप्त हुई है। उत्खनन करने वालों का मानना है कि ये नगर हड़प्पा संस्कृति के हैं।
अरबस्तान :
राजा खलीफा-अल-मंसूर का वज़ीर एक बौद्ध भिक्षु का पुत्र था। ई. ७०५ में उसको मुस्लमान बनाया गया। उसके पुत्र और पौत्र भी खलीफा के वज़ीर रहे और उन्होंने भारतीय वैद्यशास्त्र, खगोलशास्त्र, गणितशास्त्र आदि को भारत से अरबस्तान लाया। पंचतंत्र कि सारगर्भित कथाये प्रथम अरबी और सीरियाई भाषा में और पश्चात् लैटिन, स्पेन तथा इटली कि भाषाओँ में अनुवादित हुई।
ए.ए. मैकडोनाल्ड ने लिखा है कि "ई. आठवीं और नौवीं शताब्दियों में भारतीयों ने अरबों को अंकगणित, बीजगणित सिखाया, और उनसे वे शास्त्र यूरोपियों ने सीखे। इसलिए यूरोपीय लोग अंकों को अरबी अंक (Arabic Numeral System ) कहते है, किन्तु मूलतः ये अंक भारतीय ही है"।
बिचुनाथ सम्भव ने अपनी पुस्तक "ओंकार और शिवलिंग" में लिखा है कि ईसा कि सातवीं सदी के पूर्व अरबस्तान में अनेक शिव मंदिर थे। हज़रत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-हस्साम शिव भक्त थे जिन्होंने शिव कि महिमा में अनेक कवितायेँ लिखी थीं। उन्होंने इस्लाम को स्वीकार नहीं किया था।
राजा खलीफा-अल-मंसूर का वज़ीर एक बौद्ध भिक्षु का पुत्र था। ई. ७०५ में उसको मुस्लमान बनाया गया। उसके पुत्र और पौत्र भी खलीफा के वज़ीर रहे और उन्होंने भारतीय वैद्यशास्त्र, खगोलशास्त्र, गणितशास्त्र आदि को भारत से अरबस्तान लाया। पंचतंत्र कि सारगर्भित कथाये प्रथम अरबी और सीरियाई भाषा में और पश्चात् लैटिन, स्पेन तथा इटली कि भाषाओँ में अनुवादित हुई।
ए.ए. मैकडोनाल्ड ने लिखा है कि "ई. आठवीं और नौवीं शताब्दियों में भारतीयों ने अरबों को अंकगणित, बीजगणित सिखाया, और उनसे वे शास्त्र यूरोपियों ने सीखे। इसलिए यूरोपीय लोग अंकों को अरबी अंक (Arabic Numeral System ) कहते है, किन्तु मूलतः ये अंक भारतीय ही है"।
बिचुनाथ सम्भव ने अपनी पुस्तक "ओंकार और शिवलिंग" में लिखा है कि ईसा कि सातवीं सदी के पूर्व अरबस्तान में अनेक शिव मंदिर थे। हज़रत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-हस्साम शिव भक्त थे जिन्होंने शिव कि महिमा में अनेक कवितायेँ लिखी थीं। उन्होंने इस्लाम को स्वीकार नहीं किया था।
चीन :
चीन में क्ल्गन से बीजिंग जानेवाले रास्ते पर संस्कृत आदि पञ्च भाषाओँ में लिखा हुआ एक शिलालेख है जिसमे निम्न आशय लिखा है - देवानाम प्रिय चक्रवर्ती अशोक ने बुद्ध कि स्मृति जागृत कर बड़े बड़े स्तूप और विहार बनवाये और इस धर्म का तेज समग्र धरती पर फैला। प्राचीन भारत और चीन के सम्बन्ध जगत विदित हैं। सम्राट अशोक के कल में जहाँ बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अनेक भारतीय विद्वान चीन गए, वहीँ सम्राट अशोक से सहस्त्रों वर्ष पहले से ही चीन से सांस्कृतिक आदान-प्रदान निरंतर चलता रहा है।
काश्यप मातंग और धर्मरक्ष चीन जाने वाले बौद्ध धर्म के आद्य प्रचारक थे जो ईसा कि पहली शताब्दी में चीन गए थे। तीसरी शताब्दी में लोयांग के श्वेताश्व विहार में भारत के नालंदा के सामान विद्यापीठ प्रारम्भ हुआ। फाहियान जब पांचवी शताब्दी में भारत से वापस गया तो उसके साथ बुद्ध भद्र के नेतृत्व में अनेक प्रचारक चीन गए। एक सहस्त्र वर्षों से अधिक समय तक भारत के बहार जानेवाले प्रचारकों का यह अखंड प्रवाह बना रहा। यह बात संसार के इतिहास कि एक अद्भुत घटना है। इस कालखंड में चीन को बुद्ध कि उपासना पद्दति ज्ञात हुई, एवं आत्मा, परमात्मा, जीव, कर्म आदि विषयक चिंतन सत्यस्वरूप भारतीय तत्वज्ञान को भी चीन ने ग्रहण किया। यही नहीं, भारतीय विद्यापीठों में उच्च शिक्षा पाना चीनी युवकों कि आकांक्षा बन गई।
भारतीय सांख्य दर्शन में वर्णित प्रकृति-पुरुषवाद और चीन के लओत्सो द्वारा वर्णित प्रकृति के दो तत्व "याग" और "चिंग" एक ही जैसे सिद्धांत हैं। भारत और चीन कि विश्वात्मा और मानव जगत से उसके सम्बन्ध के विषय में विद्यमान धारणाएं तथा व्यक्ति के कुटुंब, वंश, और कुल, से सम्बंधित कल्पनाओं में काफी साम्य है।
चीनी जनमानस पर आज भी भारतीय प्रभाव बना हुआ है। माओत्सेतुंग के पिता रोज बुद्ध कि पूजा किया करते थे, यह बात स्वयं माओ ने लिखी है। परिवर्तित विचार तथा समाजरचना में भी प्राचीन सांस्कृतिक मूल्य बुद्ध कि सहस्त्रों पाषाण प्रतिमाओं के रूप में अचल खड़े हैं।
जब चीनी बोद्ध विद्वान फाहियान पांचवीं शताब्दी में भारत से वापस चीन गया तब उसकी नौका में २०० नाविक और व्यापारी थे। निश्चित ही यह नौका कोलम्बस आदि यूरोपियों द्वारा १५ वि शताब्दी में प्रयोग में लाई गयी नौकाओं से काफी बड़ी थी।
चीन में क्ल्गन से बीजिंग जानेवाले रास्ते पर संस्कृत आदि पञ्च भाषाओँ में लिखा हुआ एक शिलालेख है जिसमे निम्न आशय लिखा है - देवानाम प्रिय चक्रवर्ती अशोक ने बुद्ध कि स्मृति जागृत कर बड़े बड़े स्तूप और विहार बनवाये और इस धर्म का तेज समग्र धरती पर फैला। प्राचीन भारत और चीन के सम्बन्ध जगत विदित हैं। सम्राट अशोक के कल में जहाँ बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अनेक भारतीय विद्वान चीन गए, वहीँ सम्राट अशोक से सहस्त्रों वर्ष पहले से ही चीन से सांस्कृतिक आदान-प्रदान निरंतर चलता रहा है।
काश्यप मातंग और धर्मरक्ष चीन जाने वाले बौद्ध धर्म के आद्य प्रचारक थे जो ईसा कि पहली शताब्दी में चीन गए थे। तीसरी शताब्दी में लोयांग के श्वेताश्व विहार में भारत के नालंदा के सामान विद्यापीठ प्रारम्भ हुआ। फाहियान जब पांचवी शताब्दी में भारत से वापस गया तो उसके साथ बुद्ध भद्र के नेतृत्व में अनेक प्रचारक चीन गए। एक सहस्त्र वर्षों से अधिक समय तक भारत के बहार जानेवाले प्रचारकों का यह अखंड प्रवाह बना रहा। यह बात संसार के इतिहास कि एक अद्भुत घटना है। इस कालखंड में चीन को बुद्ध कि उपासना पद्दति ज्ञात हुई, एवं आत्मा, परमात्मा, जीव, कर्म आदि विषयक चिंतन सत्यस्वरूप भारतीय तत्वज्ञान को भी चीन ने ग्रहण किया। यही नहीं, भारतीय विद्यापीठों में उच्च शिक्षा पाना चीनी युवकों कि आकांक्षा बन गई।
भारतीय सांख्य दर्शन में वर्णित प्रकृति-पुरुषवाद और चीन के लओत्सो द्वारा वर्णित प्रकृति के दो तत्व "याग" और "चिंग" एक ही जैसे सिद्धांत हैं। भारत और चीन कि विश्वात्मा और मानव जगत से उसके सम्बन्ध के विषय में विद्यमान धारणाएं तथा व्यक्ति के कुटुंब, वंश, और कुल, से सम्बंधित कल्पनाओं में काफी साम्य है।
चीनी जनमानस पर आज भी भारतीय प्रभाव बना हुआ है। माओत्सेतुंग के पिता रोज बुद्ध कि पूजा किया करते थे, यह बात स्वयं माओ ने लिखी है। परिवर्तित विचार तथा समाजरचना में भी प्राचीन सांस्कृतिक मूल्य बुद्ध कि सहस्त्रों पाषाण प्रतिमाओं के रूप में अचल खड़े हैं।
जब चीनी बोद्ध विद्वान फाहियान पांचवीं शताब्दी में भारत से वापस चीन गया तब उसकी नौका में २०० नाविक और व्यापारी थे। निश्चित ही यह नौका कोलम्बस आदि यूरोपियों द्वारा १५ वि शताब्दी में प्रयोग में लाई गयी नौकाओं से काफी बड़ी थी।
तिब्बत :
सम्पूर्ण तिब्बत में सर्वश्रेष्ठ धर्मपुरुष और राष्ट्रपुरुष मने जाने वाले चतुर्दश दलाई लामा कहते है कि "संस्कृति, शिक्षा, धर्म, उपासना, साहित्य, कला आदि सभी क्षेत्रों में तिब्बत का मार्गदर्शन भारत ने किया है"। मौलिक विचार दर्शन का प्रभाव अव्याहत रूप से भारत से तिब्बत कि ओर बहता रहा और ज्ञानातुर तिब्बत ने उस प्रवाह का ह्रदय से स्वागत कर उसमे अवगाहन किया।
७ वि शताब्दी का तिब्बत का राजा नरदेव पराक्रमी था। नेपाल और चीन कि राजकन्याएँ उसकी पत्नियां थी जिनके कारण उसको बौद्ध दर्शन कि जिज्ञासा हुई। उसने सम्भोत नामक एक बुद्धिमान पंडित को शिक्षा के लिए भारत भेजा। वह भारत से वापस आने पर नरदेव का गुरु बना। तिब्बत में अनेक विहार बनाने लगे। आठवीं शताब्दी के अंत में भारत के बौद्ध प्रचारक शान्तरक्षित और पद्मसम्भव तिब्बत आये। राजा ने उनका स्वागत किया और राजधानी ल्हासा के पास के भव्य विहार में विद्यापीठ खुल गया। बाद में अनेक विहारों में विद्यापीठ खुल गए और पुस्तकालय भी बन गए। आज इन पुस्तकालयों में ऐसे अनेक प्राचीन भारतीय ग्रन्थ अनुवादित स्वरुप में प्राप्त है जो भारत में उपलब्ध नहीं है क्यूंकि वे या तो नष्ट हो गए है या किये गए है। धर्मविषयक विवाद उत्पन्न होने पर तिब्बत के पंडित भारतीय ग्रंथो को प्रमाण मानते रहे हैं। १४ वि शताब्दी में "बस्तोन" नाम के एक इतिहासकार ने समग्र तिब्बत का साहित्य संकलित किया था।
सम्पूर्ण तिब्बत में सर्वश्रेष्ठ धर्मपुरुष और राष्ट्रपुरुष मने जाने वाले चतुर्दश दलाई लामा कहते है कि "संस्कृति, शिक्षा, धर्म, उपासना, साहित्य, कला आदि सभी क्षेत्रों में तिब्बत का मार्गदर्शन भारत ने किया है"। मौलिक विचार दर्शन का प्रभाव अव्याहत रूप से भारत से तिब्बत कि ओर बहता रहा और ज्ञानातुर तिब्बत ने उस प्रवाह का ह्रदय से स्वागत कर उसमे अवगाहन किया।
७ वि शताब्दी का तिब्बत का राजा नरदेव पराक्रमी था। नेपाल और चीन कि राजकन्याएँ उसकी पत्नियां थी जिनके कारण उसको बौद्ध दर्शन कि जिज्ञासा हुई। उसने सम्भोत नामक एक बुद्धिमान पंडित को शिक्षा के लिए भारत भेजा। वह भारत से वापस आने पर नरदेव का गुरु बना। तिब्बत में अनेक विहार बनाने लगे। आठवीं शताब्दी के अंत में भारत के बौद्ध प्रचारक शान्तरक्षित और पद्मसम्भव तिब्बत आये। राजा ने उनका स्वागत किया और राजधानी ल्हासा के पास के भव्य विहार में विद्यापीठ खुल गया। बाद में अनेक विहारों में विद्यापीठ खुल गए और पुस्तकालय भी बन गए। आज इन पुस्तकालयों में ऐसे अनेक प्राचीन भारतीय ग्रन्थ अनुवादित स्वरुप में प्राप्त है जो भारत में उपलब्ध नहीं है क्यूंकि वे या तो नष्ट हो गए है या किये गए है। धर्मविषयक विवाद उत्पन्न होने पर तिब्बत के पंडित भारतीय ग्रंथो को प्रमाण मानते रहे हैं। १४ वि शताब्दी में "बस्तोन" नाम के एक इतिहासकार ने समग्र तिब्बत का साहित्य संकलित किया था।
साइबेरिया :
साइबेरिया में मौर्य सम्राट अशोक के काल में भारतीय संस्कृति, साहित्य, तत्वज्ञान आदि विषयों का अध्ययन अध्यापन गम्भीरता से हुआ और भारतीय संस्कृति के अनुसार व्यवहार भी चलता रहा। रुसी लोग १७ वि शताब्दी में साइबेरिया पहुंचे, मगर उसके कम से कम १०००-१५०० वर्षों से भारतीय संस्कृति के प्रचारक चीन, मंगोलिया होते हुए साइबेरिया जाते रहे। साइबेरिया के दक्षिण में बैकल सरोवर के पास आज भी ३३ विहार कम कर रहे है। ३,४५,००० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में ये विहार फैले है, तथा प्राचीनकाल से यहाँ इंद्र और अग्नि कि पूजा होती आई है।
पूजा में भारत के गंगाजल का बड़ा महत्व है, वे वही कि नदी का जल लेकर विधिपूर्वक मन्त्र कहकर उसमे गंगा के जल का आह्वान करते हैं। बुद्ध कि पूजा के लिए आज भी ऐसे ही अभिमंत्रित जल का प्रयोग होता है। वहाँ के विहारों के पुस्तकालयों में अनेक प्राचीन भारतीय ग्रन्थ है। चोंगोल के विहार के देवता महाकाल हैं। सैलंग के विहार में मैत्रेय कि भव्य प्रतिमा है। अगिनकी विहार में माँ सरस्वती का चित्र है। विद्यादेवी के इन उपासकों ने भारतीय संस्कृति के धरोहर को अद्यावधि सुरक्षित रखा है। उत्तर पूर्व साइबेरिया से अलास्का के बीच अनेक हिन्दू मंदिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं। हड़प्पा कि कई मुहरें रूस कि खुदाई में प्राप्त हुई है, जिनका उपयोग व्यापारिक कम काज के लिए होता था।
एक समय यहाँ नालंदा जैसा विद्यापीठ था। पाणिनि कि अष्टाध्यायी, कालिदास के मेघदूत आदि का अध्ययन यहाँ होता था। साइबेरिया के लोककाव्य में रामायण कि कथाएं हैं। साइबेरिया कि परंपरा भारतीय आतिथ्यशीलता और नम्रता का अविष्कार है। डॉ. रघुवीर अपने साइबेरिया के प्रवास में एक ८० वर्ष के वृद्ध से मिले, ज्योंही उन्होंने उनसे कहा कि मैं भारत से आया हूँ, त्योंही उसने अपने से छोटी उम्र के डॉ रघुवीर को यह कहते हुए साष्टांग प्रणाम किया कि आप पुण्यभूमि भारत से आये है और इसलिए हमारे पूज्य हैं।
साइबेरिया में मौर्य सम्राट अशोक के काल में भारतीय संस्कृति, साहित्य, तत्वज्ञान आदि विषयों का अध्ययन अध्यापन गम्भीरता से हुआ और भारतीय संस्कृति के अनुसार व्यवहार भी चलता रहा। रुसी लोग १७ वि शताब्दी में साइबेरिया पहुंचे, मगर उसके कम से कम १०००-१५०० वर्षों से भारतीय संस्कृति के प्रचारक चीन, मंगोलिया होते हुए साइबेरिया जाते रहे। साइबेरिया के दक्षिण में बैकल सरोवर के पास आज भी ३३ विहार कम कर रहे है। ३,४५,००० वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में ये विहार फैले है, तथा प्राचीनकाल से यहाँ इंद्र और अग्नि कि पूजा होती आई है।
पूजा में भारत के गंगाजल का बड़ा महत्व है, वे वही कि नदी का जल लेकर विधिपूर्वक मन्त्र कहकर उसमे गंगा के जल का आह्वान करते हैं। बुद्ध कि पूजा के लिए आज भी ऐसे ही अभिमंत्रित जल का प्रयोग होता है। वहाँ के विहारों के पुस्तकालयों में अनेक प्राचीन भारतीय ग्रन्थ है। चोंगोल के विहार के देवता महाकाल हैं। सैलंग के विहार में मैत्रेय कि भव्य प्रतिमा है। अगिनकी विहार में माँ सरस्वती का चित्र है। विद्यादेवी के इन उपासकों ने भारतीय संस्कृति के धरोहर को अद्यावधि सुरक्षित रखा है। उत्तर पूर्व साइबेरिया से अलास्का के बीच अनेक हिन्दू मंदिरों के अवशेष प्राप्त होते हैं। हड़प्पा कि कई मुहरें रूस कि खुदाई में प्राप्त हुई है, जिनका उपयोग व्यापारिक कम काज के लिए होता था।
एक समय यहाँ नालंदा जैसा विद्यापीठ था। पाणिनि कि अष्टाध्यायी, कालिदास के मेघदूत आदि का अध्ययन यहाँ होता था। साइबेरिया के लोककाव्य में रामायण कि कथाएं हैं। साइबेरिया कि परंपरा भारतीय आतिथ्यशीलता और नम्रता का अविष्कार है। डॉ. रघुवीर अपने साइबेरिया के प्रवास में एक ८० वर्ष के वृद्ध से मिले, ज्योंही उन्होंने उनसे कहा कि मैं भारत से आया हूँ, त्योंही उसने अपने से छोटी उम्र के डॉ रघुवीर को यह कहते हुए साष्टांग प्रणाम किया कि आप पुण्यभूमि भारत से आये है और इसलिए हमारे पूज्य हैं।