दक्षिण एशिया तथा ऑस्ट्रेलिया
इंडोनेशिया :
सुमात्रा द्वीप में शैलेन्द्र राजाओं का शासन १० वि शताब्दी तक चला। उन्होंने अपने वैभवपूर्ण शासन का एक स्थायी आध्यात्मिक स्मारक बना रखा है, बोरोबुदुर। शैलेन्द्र बौद्ध पंथ के थे, उनके द्वारा निर्मित यह विशाल स्तूप वास्तव में पाषाण पर लिखा महाकाव्य ही है। जावा द्वीप कि प्रंबनन घटी में १५६ मंदिर है। एक विशाल शिवालय कि परिक्रमा का मार्ग ७ फुट चौड़ा है जिसमे रामायण कि कथाये खुदी हुई है।
१० वि शताब्दी से १६ वि शताब्दी के मध्य तक मलाया, सुमात्रा, जावा आदि सभी द्वीपों में "मजपहित" के नाम से विख्यात साम्राज्य था जिसके राजा शैवपंथी थे। १० वि शताब्दी के बालीतुंग रजा ने अगस्त्य मुनि कि एक भव्य मूर्ति कि स्थापना कि थी जिससे पता चलता है कि जावा में भारतीय संस्कृति के प्रचारक अगस्त्य को कितना महत्व प्राप्त था। वहाँ अगस्त्यपर्व नाम का एक ग्रन्थ भी मिलता है।
बाली द्वीप में पूर्व प्रचलित भारतीय आचार परम्पराएं आज भी दिखाई देती है। प्रत्येक नगर में विशुनु अथवा महादेव का मंदिर है और वहाँ कि प्रजा स्वयं को हिन्दू कहती है। यहाँ प्रातः काल यदि हम शिव मंदिर में जाएँ, तो "ॐ न्हा न्ही सः परमशिवादित्याय नमः" मन्त्र कि वाणी संस्कृत में सुनने को मिलेगी, और शाम को विष्णु मंदिर में आबालवृद्ध "ॐ विष्णुकवचाय नमः" कहते हुए मिलेंगे। शिव कवच, विष्णु कवच, राम कवच ये उनके नित्यपाठ के स्तोत्र है। बौद्ध मत के उपासक भी संस्कृत में बौद्ध त्रिनेत्रों का नित्यस्मरण करते है। उपासना में वहाँ गायित्री मन्त्र का प्रचार है। उनकी कालगणना भारतीय शालिवाहन संवत के अनुसार ही है।
बोर्नियो द्वीप बड़ा है। उसका उत्तरी भाग मलेशिया में है। बोर्नियो का वर्णन चीनी यात्री इत्सिंग ने किया है, उसके अनुसार यहाँ कि संस्कृति कंबुज के सामान थी। वहाँ कुतई और मोरकमन में प्राप्त शिलालेखों में वहाँ के पराक्रमी मूलवर्मन राजा को युधिष्ठिर कि उपमा दी गयी है। मूलवर्मन के फुनान के सम्राट कौण्डिन्य का पौत्र होने का उल्लेख एक शिलालेख में पाया गया है। वहाँ शैव मत प्रचलित था। केम्बेंग कि गुफा में शिव, नंदीश्वर, अगस्त्य तथा महाकाल कि मूर्तियां मिली है।
सुमात्रा द्वीप में शैलेन्द्र राजाओं का शासन १० वि शताब्दी तक चला। उन्होंने अपने वैभवपूर्ण शासन का एक स्थायी आध्यात्मिक स्मारक बना रखा है, बोरोबुदुर। शैलेन्द्र बौद्ध पंथ के थे, उनके द्वारा निर्मित यह विशाल स्तूप वास्तव में पाषाण पर लिखा महाकाव्य ही है। जावा द्वीप कि प्रंबनन घटी में १५६ मंदिर है। एक विशाल शिवालय कि परिक्रमा का मार्ग ७ फुट चौड़ा है जिसमे रामायण कि कथाये खुदी हुई है।
१० वि शताब्दी से १६ वि शताब्दी के मध्य तक मलाया, सुमात्रा, जावा आदि सभी द्वीपों में "मजपहित" के नाम से विख्यात साम्राज्य था जिसके राजा शैवपंथी थे। १० वि शताब्दी के बालीतुंग रजा ने अगस्त्य मुनि कि एक भव्य मूर्ति कि स्थापना कि थी जिससे पता चलता है कि जावा में भारतीय संस्कृति के प्रचारक अगस्त्य को कितना महत्व प्राप्त था। वहाँ अगस्त्यपर्व नाम का एक ग्रन्थ भी मिलता है।
बाली द्वीप में पूर्व प्रचलित भारतीय आचार परम्पराएं आज भी दिखाई देती है। प्रत्येक नगर में विशुनु अथवा महादेव का मंदिर है और वहाँ कि प्रजा स्वयं को हिन्दू कहती है। यहाँ प्रातः काल यदि हम शिव मंदिर में जाएँ, तो "ॐ न्हा न्ही सः परमशिवादित्याय नमः" मन्त्र कि वाणी संस्कृत में सुनने को मिलेगी, और शाम को विष्णु मंदिर में आबालवृद्ध "ॐ विष्णुकवचाय नमः" कहते हुए मिलेंगे। शिव कवच, विष्णु कवच, राम कवच ये उनके नित्यपाठ के स्तोत्र है। बौद्ध मत के उपासक भी संस्कृत में बौद्ध त्रिनेत्रों का नित्यस्मरण करते है। उपासना में वहाँ गायित्री मन्त्र का प्रचार है। उनकी कालगणना भारतीय शालिवाहन संवत के अनुसार ही है।
बोर्नियो द्वीप बड़ा है। उसका उत्तरी भाग मलेशिया में है। बोर्नियो का वर्णन चीनी यात्री इत्सिंग ने किया है, उसके अनुसार यहाँ कि संस्कृति कंबुज के सामान थी। वहाँ कुतई और मोरकमन में प्राप्त शिलालेखों में वहाँ के पराक्रमी मूलवर्मन राजा को युधिष्ठिर कि उपमा दी गयी है। मूलवर्मन के फुनान के सम्राट कौण्डिन्य का पौत्र होने का उल्लेख एक शिलालेख में पाया गया है। वहाँ शैव मत प्रचलित था। केम्बेंग कि गुफा में शिव, नंदीश्वर, अगस्त्य तथा महाकाल कि मूर्तियां मिली है।
मलेशिया :
आज मलय लोगों में ईसाई और मुसलमानों कि अधिकता है, किन्तु उन पर आज भी भारतीय संस्कृति कि छाप स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी भाषा में अनेक संस्कृत शब्द है। वहाँ उत्खनन में बुद्ध कि मूर्तियां, शिवालय जिनमे दुर्गा, गणेश, नंदी आदि कि मूर्तियां भी है, बुद्ध संप्रदाय कि तांत्रिक उपासना के साधन तथा शिलाओं पर और धातु पर खुदे हुए लेख भी मिले हैं। महानाविक बुद्धगुप्त का वर्णन इन शिलालेखों से प्राप्त हुआ है।
आज मलय लोगों में ईसाई और मुसलमानों कि अधिकता है, किन्तु उन पर आज भी भारतीय संस्कृति कि छाप स्पष्ट दिखाई देती है। उनकी भाषा में अनेक संस्कृत शब्द है। वहाँ उत्खनन में बुद्ध कि मूर्तियां, शिवालय जिनमे दुर्गा, गणेश, नंदी आदि कि मूर्तियां भी है, बुद्ध संप्रदाय कि तांत्रिक उपासना के साधन तथा शिलाओं पर और धातु पर खुदे हुए लेख भी मिले हैं। महानाविक बुद्धगुप्त का वर्णन इन शिलालेखों से प्राप्त हुआ है।
फिलीपींस :
फिलीपींस के मध्य भाग में सेबू में लोकेश्वर कि कांस्य एवं गरुड़ कि स्वर्णमुर्ति पाई गई है। दक्षिण में लुझन में अवलोकितेश्वर कि मूर्ती मिली है। फुनान तथा शैलेन्द्र सम्राटों के उनसे सम्बन्ध थे। आज कि वहाँ कि राजधानी मनिला के संसद में अध्यक्ष के आसान के पीछे आद्य स्मृतिकार के रूप में मनु का चित्र लगा हुआ है। मलाया से लेकर फिलीपींस तक पूरे क्षेत्र के राष्ट्र जीवन में आज भी भारतीय संस्कृति के प्रभाव चिन्ह मिलते हैं।
फिलीपींस के मध्य भाग में सेबू में लोकेश्वर कि कांस्य एवं गरुड़ कि स्वर्णमुर्ति पाई गई है। दक्षिण में लुझन में अवलोकितेश्वर कि मूर्ती मिली है। फुनान तथा शैलेन्द्र सम्राटों के उनसे सम्बन्ध थे। आज कि वहाँ कि राजधानी मनिला के संसद में अध्यक्ष के आसान के पीछे आद्य स्मृतिकार के रूप में मनु का चित्र लगा हुआ है। मलाया से लेकर फिलीपींस तक पूरे क्षेत्र के राष्ट्र जीवन में आज भी भारतीय संस्कृति के प्रभाव चिन्ह मिलते हैं।
ऑस्ट्रेलिया :
नृत्य शास्त्र कि विदुषी डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम कुछ वर्ष पूर्व नृत्य प्रदर्शन के लिए ऑस्ट्रेलिया गयी थी। जाने के पहले वे अपने गुरु कांची पीठ के शंकराचार्य परमाचार्य चंद्रशेखरेन्द्र जी सरस्वती के पास गयी। तब परमाचार्य जी ने उनको बताया कि ऑस्ट्रेलिया में एक शिवभक्त जमात है जो अपने माथे और शारीर पर त्रिपुंड लगते है, उनसे मिलो। वहाँ प्रदर्शन करने वाले नृत्यदलों में उस शिव जमात का भी एक दल आया था जिससे पद्मा सुब्रमण्यम उनसे सरलता और आराम से मिल सकी। उस जमात का नाम "गगुज्जा" और वे वहाँ कि "बालगो" पहाड़ियों में रहते हैं। उनकी भाषा तमिल भाषा से मिलती है। तमिलनाडु वालों को जिस हंसनंदी राग कि जानकारी है, उस राग में वे गाते है। गीत कि पंक्तिया रामा रामा से प्रारम्भ होती है।
कोई चाहे या न चाहे, किन्तु इस सत्य को नकार नहीं जा सकता कि भारतीय तमिलों का ऑस्ट्रेलिया में प्राचीन काल से रहते आये गगुज्जा लोगों से सम्बन्ध था। पृथ्वी के पांचों खण्डों में यूरोपीय विस्तार से बहुत पूर्व ही भारतीय लोगों का आना, जाना व बसना प्रारम्भ हो गया था।
नृत्य शास्त्र कि विदुषी डॉ. पद्मा सुब्रमण्यम कुछ वर्ष पूर्व नृत्य प्रदर्शन के लिए ऑस्ट्रेलिया गयी थी। जाने के पहले वे अपने गुरु कांची पीठ के शंकराचार्य परमाचार्य चंद्रशेखरेन्द्र जी सरस्वती के पास गयी। तब परमाचार्य जी ने उनको बताया कि ऑस्ट्रेलिया में एक शिवभक्त जमात है जो अपने माथे और शारीर पर त्रिपुंड लगते है, उनसे मिलो। वहाँ प्रदर्शन करने वाले नृत्यदलों में उस शिव जमात का भी एक दल आया था जिससे पद्मा सुब्रमण्यम उनसे सरलता और आराम से मिल सकी। उस जमात का नाम "गगुज्जा" और वे वहाँ कि "बालगो" पहाड़ियों में रहते हैं। उनकी भाषा तमिल भाषा से मिलती है। तमिलनाडु वालों को जिस हंसनंदी राग कि जानकारी है, उस राग में वे गाते है। गीत कि पंक्तिया रामा रामा से प्रारम्भ होती है।
कोई चाहे या न चाहे, किन्तु इस सत्य को नकार नहीं जा सकता कि भारतीय तमिलों का ऑस्ट्रेलिया में प्राचीन काल से रहते आये गगुज्जा लोगों से सम्बन्ध था। पृथ्वी के पांचों खण्डों में यूरोपीय विस्तार से बहुत पूर्व ही भारतीय लोगों का आना, जाना व बसना प्रारम्भ हो गया था।
न्यूज़ीलैंड :
न्यूज़ीलैंड कि मावरी जनजाति के मुख्या कार्यपालन अधिकारी श्री हेयर ब्यूक ने हेमिलटन म्युसियम हाल में १९९८ में तत्रस्थ भारतीयों द्वारा मनाये जा रहे समारोह कि अध्यक्षता कि जिसमे उन्होंने कहा कि "गंगा नदी हमारी माँ है, हम और भारतीय एक ही हैं"।
न्यूज़ीलैंड कि मावरी जनजाति के मुख्या कार्यपालन अधिकारी श्री हेयर ब्यूक ने हेमिलटन म्युसियम हाल में १९९८ में तत्रस्थ भारतीयों द्वारा मनाये जा रहे समारोह कि अध्यक्षता कि जिसमे उन्होंने कहा कि "गंगा नदी हमारी माँ है, हम और भारतीय एक ही हैं"।